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उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मꣳ श्र॑थाय। अथा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते तवाना॑गसो॒ऽअदि॑तये स्याम ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। व॒रु॒ण॒। पाश॑म्। अ॒स्मत्। अव॑। अ॒ध॒मम्। वि। म॒ध्य॒मम्। श्र॒था॒य॒। श्र॒थ॒येति॑ श्रथय। अथ॑। व॒यम्। आ॒दि॒त्य॒। व्र॒ते। तव॑। अना॑गसः। अदि॑तये। स्या॒म॒ ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) शत्रुओं को बाँधने (आदित्य) स्वरूप से अविनाशी सूर्य्य के समान सत्य न्याय के प्रकाशक सभापति विद्वान् ! आप (अस्मत्) हमसे (अधमम्) निकृष्ट (मध्यमम्) मध्यस्थ और (उत्तमम्) उत्तम (पाशम्) बन्धन को (उदवविश्रथाय) विविध प्रकार से छुड़ाइये। (अथ) इसके पश्चात् (वयम्) हम प्रजा के पुरुष (अदितये) पृथिवी के अखण्डित राज्य के लिये (तव) आपके (व्रते) सत्य-न्याय के पालनरूप नियम में (अनागसः) अपराधरहित (स्याम) होवें ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के अनुकूल सत्य आचरणों में वर्त्तमान हुए धर्मात्मा मनुष्य पाप के बन्धनों से छूट के सुखी होते हैं, वैसे ही उत्तम राजा को प्राप्त होके प्रजा के पुरुष आनन्दित होते हैं ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(उत्) (उत्तमम्) (वरुण) शत्रूणां बन्धक (पाशम्) बन्धनम् (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (अव) (अधमम्) निकृष्टम् (वि) (मध्यमम्) मध्यस्थम् (श्रथाय) विमोचय (अथ) पश्चात्। अत्र निपातस्य च [अष्टा०६.३.१३६] इति दीर्घः (वयम्) प्रजास्थाः (आदित्य) अविनाशिस्वरूप सूर्य्य इव सत्यन्यायप्रकाशक (व्रते) सत्यन्यायपालननियमे (तव) (अनागसः) अनपराधिनः (अदितये) पृथिवीराज्याय। अदितिरिति पृथिवीनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१) (स्याम) भवेम। [अयं मन्त्रः शत०६.७.३.८ व्याख्यातः] ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वरुणादित्य ! त्वमस्मदधमं मध्यममुत्तमं पाशमुदवविश्रथायाथ वयमदितये तव व्रतेऽनागसः स्याम ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - यथेश्वरस्य गुणकर्मस्वभावानुकूला धार्मिका जनाः सत्याचरणे वर्त्तमानाः सन्तः पापबन्धान्मुक्त्वा सुखिनो भवन्ति तथैवोत्तमं राजानं प्राप्य प्रजाजना आनन्दिता जायन्ते ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराच्या गुण-कर्म स्वभावानुसार सत्य आचरण करणारे धर्मात्मा जसे पापाच्या बंधनातून मुक्त होतात व सुखी बनतात, तसेच उत्तम राजा मिळाल्यामुळे प्रजाही आनंदित होते.